धुप सौतन सी लगती है ग्रीष्म ऋतू में सखी
शरद ऋतू में साजन सी लागे मुझे
बरखा में जैसे हो जाए ये बावरी
और बसंत में मनोहर सी लागे मुझे
धुप सौतन सी लगती है ग्रीष्म ऋतू में सखी
शरद ऋतू में साजन सी लागे मुझे
कभी तपती है ये कभी शीतल है ये
कभी आये जाये पता ही नही
कभी तडपा के हमपे कहर ढाती है
कभी तरसा के आके चली जाती है
कभी सावन सी दिल पे बरस जाती है
कभी ज्येष्ठ सी दिल को जला जाती है
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