आजकल हम क्यों मनुष्यता पर प्रहार करने से नही चूकते है क्यों कभी कभी हम मासूमियत का भी गाला घोटने से हिचकिचाते नही है आजकल की दिनचर्या अपनी संस्कृति से खिलवाड़ ये क्या है क्यों हम इतने क्रुद्ध और निर्मम होते जा रहे है क्या दया भाव का लोप होता जा रहा है ऐसा क्यों सायद हम अत्यधिक स्वार्थी हो गए है और इतना की सिर्फ मै ही मैं दिखाई देता है और कछ दीखता ही नही हमारे आँखों के सामने उजाला होते हुए भी हम अन्धकार में ही जीना चाहते है या आदी हो गए है ऐसी दिनचर्या के लिए क्यों हम बदल नही सकते है क्या ये इतना कठिन कार्य है हमे बदलना होगा
सायद बदलाव ही उपाय है लेकिन ऐसा नही जैसा आजकल है
सायद बदलाव ही उपाय है लेकिन ऐसा नही जैसा आजकल है
बदलाव सार्थक होना चाहिए
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