आनंद की अनुभूति हमे ईश्वर के समीप ले जाने का काम करती है जैसे जैसे हम
अपने आप में खोते जाते है वैसे वैसे हम उस इस्वर के समीप पहुँचते जाते है
जो संपूर्ण संसार में विद्यमान है और सभी का पालन पोषण करता है ये अनुभूति
ना ही बनाई जाती है न ही हमारे चाहने से मिलती है ये तो स्वयं ही हमारे मन
में रहती है हमारा मन इस आनंद रुपी समुद्र का छोटा सा घरोंदा होता है सच
कहे तो वास्तव में इसको पाना इसमें खोना अपने आप में डूबने जैसा होता है
जिसमे खोने के पश्चात हमारी ही नहीं अपितु हमारे पूरे जीवन की कोई भी
आकांक्षा नही रह जाती है सारी इच्छाए खो जाती है और हम स्वयं में खो जाते
है अपने आप में अदृश्य हो जाते है और सिर्फ एक ही रूप दिखाई देता है जो
निराकार है और वही हमारे यथार्थ जीवन का अनुभव कराता है
तो आओ हम सभी इस प्रेम के सागर में डुबकी लगाकर उस निराकार परम बृम्हा से साक्छात्कार होते है उनके दर्शन करके अपने जीवन को पूर्ण करता है
जय श्री कृष्णा
तो आओ हम सभी इस प्रेम के सागर में डुबकी लगाकर उस निराकार परम बृम्हा से साक्छात्कार होते है उनके दर्शन करके अपने जीवन को पूर्ण करता है
जय श्री कृष्णा
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